गुरु पूर्णिमा और गुरु शिष्य परंपरा।

संत तुलसीदासजी ने भी रामचरितमानस में लिखा है,

गुरु बिनु भवनिधि तरइ ना कोई|

जों बिरंचि संकर सम कोई||

अर्थात कोई यदि ब्रह्मा शंकर के सामान भी हो तो भी बगैर गुरु के वह भवसागर पार नहीं कर सकता। क्या कथन अपने आप में गुरु की महत्ता बताने के लिए काफी है। कि अगर आप भगवान भी हैं तो आपको भी गुरु की जरूरत है।

गुरु में गु शब्द का अर्थ है अहंकार (अज्ञान) और रू शब्द का अर्थ है प्रकाश (ज्ञान)। अर्थात अज्ञान अंधकार को नष्ट कर जो ब्रह्म रूपी प्रकाश प्रदान करें वही गुरु है।

गुरु शिष्य परंपरा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें गुरु शिष्य से अलग-अलग ना होकर एक दूसरे के पूरक है। जैसे गुरु द्रोण के बिना अर्जुन की कल्पना नहीं हो सकती वैसे ही अर्जुन के बगैर गुरु द्रोण की। दोनों साथ न होते तो इतने महान नहीं होते। हमारे पास ऐसे असंख्य उदाहरण है जो गुरु शिष्य परंपरा की महानता को व्यक्त करते हैं, गोविंद पाद - शंकराचार्य, रामनाथ - शिवाजी, प्राणनाथ - छत्रसाल, रामकृष्ण परमहंस - विवेकानंद, चाणक्य - चंद्रगुप्त, वर्तमान में रामाकांत अचरेकर - सचिन तेंदुलकर, गोपी चंद - पीवी सिंधु। इन नामों को एक दूसरे से अलग अलग देखना शायद संभव ही नहीं है।

         गुरु शिष्य परंपरा का अगर हम सबसे महान उदाहरण देखें तो श्रीराम और महर्षि वशिष्ठ का नजर आता है। हमारे गुरु शिष्य परंपरा के बारे में पाश्चात्य दार्शनिक शोपेनहावर ने कहा है " यदि विश्व में सबसे प्रभावशाली क्रांति कहीं से आई तो वह उपनिषदों की भूमि से आई है। उन्होंने कहा शिष्यों ने गुरु के समीप बैठ कर उपनिषदों के माध्यम से विश्व को जो दिव्य ज्ञान दिया है उसका कोई सानी नहीं है।" प्राचीन काल में तक्षशिला, पाटलिपुत्र, मिथिला, तंजौर, काशी में स्थित संस्थाएं संपूर्ण भारत में अपने शिक्षण एवं गुरु शिष्य की परंपरा के लिए प्रसिद्ध रहे थे।

                  गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु शिष्य परंपरा को परंपराप्राप्तम योग कहा है। आज यह परंपरा विलुप्त होती जा रही है।  शिक्षा जो भी हो बगैर गुरु के सानिध्य के वह अधूरा है। अंत में मैं अपने उन गुरुओं को भी नमन करता हूं जिन्होंने हमेशा मेरा मार्गदर्शन किया।


अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।

तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।


भावार्थ:

उस महान गुरु को अभिवादन, जिसने उस अवस्था का साक्षात्कार करना संभव किया जो पूरे ब्रम्हांड में व्याप्त है, सभी जीवित और मृत्य (मृत) में।

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