विकास की शोर में ऊंघते गांव।

 

भारत गांवों का देश रहा है। ग्रामीण जीवन की सुंदरता एवं ग्रामीण संस्कृति भारत को विशेष पहचान देते हैं। गांव की संस्कृति एवं खूबसूरती बचाते हुए उनका विकास समय की मांग है। अंधाधुन दौर में हमारे गांव कहीं बहुत पीछे छूटते जा रहे हैं। गांव विकास की दौड़ में कहीं ऊंघ से रहे हैं। जो विकास हो भी रहा है वह गांव के पारंपरिक स्वरूप को धीरे-धीरे नष्ट करता जा रहा है। शहरी जीवन के आश ने ऐसे पलायन को जन्म दिया है, जिसने रामू अब्दुल सब को गांव से दूर कर दिया है। बूढ़े मां बाप की इंतजार करती आंखें हर गांव का सबब बन गई हैं परंतु जो बच्चे रोजगार और शिक्षा की आस में एक बार अपने घोसले से निकल जाते हैं कहां लौट के आ पाते हैं।


स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही अगर गांव की ओर विशेष ध्यान दिया गया होता तो आज यह स्थिति ना होती। सरकारी योजनाएं बनती भी रहे विकास के नारे लगते भी रहे परंतु इस विकास के शोर में गांव कभी आ ही ना पाए। सरकारों द्वारा गांव के विकास के लिए बहुत सी योजनाएं लाई गई। जिनके कारण धीरे-धीरे गांव में विकास देखा भी गया गांव में सड़क बिजली जैसी सुविधाएं भी पहुंची परंतु जो गांधी जी का वास्तविक ग्राम स्वराज था शहरीकरण में कहीं ना कहीं खो गया। इस विकास ने गांव की वास्तविक खूबसूरती को कहीं ना कहीं छीन लिया बैलों की घंटी की आवाज को ट्रैक्टरों की आवाज ने पीपल की छांव को कंक्रीट की दीवारों ने, गांव के तालाबों को कूड़े के ढेरों ने अपने अंदर निगल सा लिया। गांव अपनी प्राकृतिक रूप से हटकर कस्बे बनने लगे।


आजादी के 75 वर्ष बाद भी गांव कहीं विकास के स्वर में आज भी नींद में ऊंघते से प्रतीत होते हैं। लगातार हो रहे पलायन ने तो गांव की स्थिति और भी विकट कर दी। शिक्षा स्वास्थ्य एवं रोजगार के अवसरों के कारण दिल्ली मुंबई जैसे शहर जाने लगे, खुले और सुंदर गांव को छोड़कर 2 गज के बंद कमरों में जिंदगी गुजारने लगे।


अब समय आ गया है कि गांव को विकास का केंद्र बनाएं, गांव का विकास शहरों की तर्ज पर ना होकर ग्रामीण आत्मा को बचाए रखते हुए हो। कृषि कार्य कुटीर उद्योग सहकारी समितियों को पुनः केंद्र में रखकर विकास की योजनाओं का फिरसे मूल्यांकन किया जाए। अच्छी शिक्षा स्वास्थ्य सेवाएं पंचायत स्तर पर उपलब्ध हो। शिक्षा रोजगार परक हो जो गांव आधारित उद्योगों को बढ़ावा दें। विकास ऐसा हो कि ना पीपल की छांव गायब हो ना गांव के तालाब। नहीं अब्दुल को ईद मनाने बसों के धक्के खा कर आना पड़े, नाही राम श्याम को दिवाली और छठ के लिए ट्रेनों में नरकीय स्थिति से गुजरना पड़े।


गांधीजी भी शहरों की भौतिकता के बदले गांव की मौलिकता के समर्थक थे। वे कहते थे भारत की आत्मा गांवों में बसती है। जरूरत उस आत्मा को बचाए रखते हुए आत्मनिर्भर गांव बनाने की है । जहां मूलभूत सुविधाएं  उपलब्ध हो रोजगार उपलब्ध हो।  शिक्षा और रोजगार जैसे मुद्दे के लिए गांव छोड़कर लोगों को शहरों का पलायन ना करना पड़े।


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