मैं आज भी घर से बेघर हूं मैं एक कश्मीरी पंडित हूं।


हमने कभी उठाया ही क्या अपने हाथों में तिरंगे के सिवा,

ए मादरे वतन हमने तुमसे मांगा ही क्या अपने कश्मीर में एक घोंसले के सिवा।


दिल्ली हो मुंबई हो या हो जम्मू ,कश्मीरी दम आलू तो आज भी बनते हैं रोगन जोश की खुशबू आज भी आती है लेकिन जब किसी कश्मीरी पंडित से बात करें तो कहेंगे "इन खानों में अब वो एहसास नहीं मिलता, अब हमारे अंदर हमारा वो खोया कश्मीर नहीं मिलता।कई लोगों को कहते सुना होगा जो कश्मीरी पंडित तो पहले से बेहतर स्थिति में है दिल्ली मुंबई जैसे बड़े शहरों में, अच्छी जिंदगी जी रहे हैं पर शायद वो लोग उनके आंखों का दर्द और बेबसी नहीं देख पाते हैं। चिड़ियाघर में जब जंगल से शेर को लाया जाता है उसको सारी सुविधाएं दे दी जाती है  बगैर शिकार किए भी उसे भोजन मिल जाता है वह पूरी आराम की जिंदगी जीता है पर कभी आपने उस शेर की आंखों को ध्यान से देखा है उसमे आपको अकेलापन, अपने जंगल से दूर हो जाने का, बंद पड़ी जिंदगी का दर्द साफ नजर आता है । इसी तरह कश्मीरी पंडित कहीं रहे पर जो एहसास जो पहचान उनको कश्मीर देता है वह कोई भी सुख सुविधा और कोई भी मिट्टी नहीं दे सकती।1990 में जो नरसंहार हुआ उसकी सच्चाई अब सबको पता है, परंतु अभी तक कश्मीरी पंडितों को न्याय ना मिलना और उनके अपनी मातृभूमि से दूर रहना एक राष्ट्र के रूप में और न्याय प्रणाली के रूप में हमारी असफलता है। कश्मीरी पंडितों की वापसी एक बहुत बड़ी चुनौती है और एक राष्ट्र के रूप में हमारा फर्ज है हम कश्मीरी पंडितों को उनकी भूमि उनका एहसास उनकी कश्मीरियत उनको वापस दिलवाए। बगैर कश्मीरी पंडितों के घाटी कल भी अधूरी थी आज भी अधूरा है और हमेशा अधूरी रहेगी।रोजगार की संभावनाओं को देखते हुए, और स्थिति के थोड़े सामान्य होने के कारण कई कश्मीरी पंडित घाटी में वापस भी जा रहे हैं। पर सबसे बड़ा सवाल यह है की कश्मीरियत पर लगी खून के लाल धब्बे कभी धूल पाएंगे क्या। जो दिलों के बीच में दूरी आ गई थी, क्या वह कभी मिट पाएगी, क्योंकि जख्मों के निशान जिस्म से होते हुए रूहों पर बन गए हैं जिनका मिटना बहुत ही मुश्किल है और बगैर मिटे हम उस खोई हुई कश्मीरियत को कभी वापस जिंदा नहीं कर सकते हैं।

*"दे दो हमें वो हमारा कश्मीर जहां हाक और भत की वो भीनी सी खुशबू हो, हो वहां हमारे हेरथ का पुराना प्यार।

घाटी की गोद में हम एक बार फिर खेले वापस दे दो हमें हमारा कश्मीर हमारा संसार।*


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